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kaavya manjari

Thursday, May 22, 2014

माँ................................


दिन के ढलते ही माँ की इक फरियाद होती है|
जल्दी घर  आ जा तूँ  तेरी अब याद होती है||

खाने की ताजगी की भी कुछ मियाद होती है|
तेरे बिन छप्पन भोग की हर चीज बेस्वाद होती है||

देखो गाँव से बाबा  न जाने कब से  आए हैं|
माटी में लिपटी अठखेलियों की ही याद होती है||

धीर के रुखसार पे अब बेचैनियों का डेरा है|
मुन्तजिर आँखों में मिलन की मुराद होती है||

दिन के ढलते ही माँ की इक फरियाद होती है|
स्वप्निल इमारत की कुछ तो बुनियाद होती है||

दिन के ढलते ही......................

 मुन्तजिर - इन्तजार

Wednesday, May 21, 2014

उल्फ़तों की..........

उल्फ़तों की जागीर को अपना बना के देख लो

हार की सौगात को सिर माथे से लगा के देख लो

हो जाएंगे इक रोज पीछे आँधियों के धुलझड़े भी

सिद्दत से तूफान की चाल से चाल मिला के देख लो