अन्तर्मन में पल्लवित, स्वर्णिम भावनात्मक और वैचारिक उर्मिल उर्मियों की श्रृंखला को काव्य में ढालकर आपके मन मस्तिष्क को आनन्दमयी करने के लिये प्रस्तुत है जानकीनन्दन आनन्द की यह ''आनन्दकृति''
कर रहा था बात जिस, बिछड़े किरदार की | रह गई थी बिन बिकी वो चीज,समूचे बाज़ार की| खेद मुझको तो नहीं ,शोक उनको भी नहीं | सामने आकर पास पहुँची ,असली इक हकदार की ...|
वाह! बहुत बढियां.
ReplyDelete