दिन के ढलते ही माँ की इक फरियाद होती है|
जल्दी घर आ जा तूँ तेरी अब याद होती है||
खाने की ताजगी की भी कुछ मियाद होती है|
तेरे बिन छप्पन भोग की हर चीज बेस्वाद होती है||
देखो गाँव से बाबा न जाने कब से आए हैं|
माटी में लिपटी अठखेलियों की ही याद होती है||
धीर के रुखसार पे अब बेचैनियों का डेरा है|
मुन्तजिर आँखों में मिलन की मुराद होती है||
दिन के ढलते ही माँ की इक फरियाद होती है|
स्वप्निल इमारत की कुछ तो बुनियाद होती है||
दिन के ढलते ही......................
मुन्तजिर - इन्तजार
सुन्दर रचना |
ReplyDeleteजब दूर चले जाते हैं
ReplyDeleteतो सब कुछ ठीक हो---की आस होती है.
बेहतरीनB-)
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन डबल ट्रबल - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteक्या खूब अशआर कहे हैं सर... सादर बधाई ।
ReplyDeleteबहुत खूब :)
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर
ReplyDeleteमन को छूती हुई
संवेदनाओं को व्यक्त करती कविता---
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई ----
आग्रह है---
नीम कड़वी ही भली-----
Bahut Hi Sunder....
ReplyDeleteसुंदरतम !!
ReplyDeleteउम्दा ग़ज़ल...
ReplyDeleteBahut hi sunder rachna ..... Badhaayi !!
ReplyDeleteBahut hi sunder rachna ..... Badhaayi !!
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