अन्तर्मन में पल्लवित, स्वर्णिम भावनात्मक और वैचारिक उर्मिल उर्मियों की श्रृंखला को काव्य में ढालकर आपके मन मस्तिष्क को आनन्दमयी करने के लिये प्रस्तुत है जानकीनन्दन आनन्द की यह ''आनन्दकृति''
Friday, November 21, 2014
Monday, September 15, 2014
Tuesday, July 15, 2014
देखते ही......................
देखते ही देखते कुछ लोग ग़ज़ल हो रहे थे
किसी से गुफ़्तगू के दरमियां वो फ़जल हो रहे थे
हमे तो शौक था उनको झांक कर देखने का
तजुर्बे की सुधा से होंठ उनके सजल हो रहे थे
...................................................................
गुस्ताखियां मेरी आज किसी के हाथ लग गई
होशियारी की तहों में सिलबटों की बाढ़ लग गई
बड़े जोश में निकला था उनका सामना करने को मैं
शालीनता के तेज से मेरी शैतानियों की तो बाट लग गई
.........................................................................
पाकीजा मुहब्बत की इक किरदार तुम बन जाओ
प्रेम पूज्य गंगा की इक पतवार तुम बन जाओ
पग पग पे भरोसे की.......... नैया जो डूबती है
मझधार में कस्ती की खेवनहार तुम बन जाओ
....................................................................
हो गई शरारत संभलते संभलते...
खो गया ख्वाब में सोचते सोचते...
इस तरह जमाने से कहना न था..
लफ़्ज जाहिर हुये रोकते रोकते.....
........................................................
मेरी उम्मीदों के हर्फ़ो से बनती एक कहानी हो
चंदा के रूह में बसती एक आस पुरानी हो
बरखा की बूँदों से चलती अविरल एक रवानी हो
सुकूं-चैन की चोरी की तुम एक चोर पुरानी हो
किसी से गुफ़्तगू के दरमियां वो फ़जल हो रहे थे
हमे तो शौक था उनको झांक कर देखने का
तजुर्बे की सुधा से होंठ उनके सजल हो रहे थे
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गुस्ताखियां मेरी आज किसी के हाथ लग गई
होशियारी की तहों में सिलबटों की बाढ़ लग गई
बड़े जोश में निकला था उनका सामना करने को मैं
शालीनता के तेज से मेरी शैतानियों की तो बाट लग गई
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पाकीजा मुहब्बत की इक किरदार तुम बन जाओ
प्रेम पूज्य गंगा की इक पतवार तुम बन जाओ
पग पग पे भरोसे की.......... नैया जो डूबती है
मझधार में कस्ती की खेवनहार तुम बन जाओ
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हो गई शरारत संभलते संभलते...
खो गया ख्वाब में सोचते सोचते...
इस तरह जमाने से कहना न था..
लफ़्ज जाहिर हुये रोकते रोकते.....
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मेरी उम्मीदों के हर्फ़ो से बनती एक कहानी हो
चंदा के रूह में बसती एक आस पुरानी हो
बरखा की बूँदों से चलती अविरल एक रवानी हो
सुकूं-चैन की चोरी की तुम एक चोर पुरानी हो
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Thursday, May 22, 2014
माँ................................
दिन के ढलते ही माँ की इक फरियाद होती है|
जल्दी घर आ जा तूँ तेरी अब याद होती है||
खाने की ताजगी की भी कुछ मियाद होती है|
तेरे बिन छप्पन भोग की हर चीज बेस्वाद होती है||
देखो गाँव से बाबा न जाने कब से आए हैं|
माटी में लिपटी अठखेलियों की ही याद होती है||
धीर के रुखसार पे अब बेचैनियों का डेरा है|
मुन्तजिर आँखों में मिलन की मुराद होती है||
दिन के ढलते ही माँ की इक फरियाद होती है|
स्वप्निल इमारत की कुछ तो बुनियाद होती है||
दिन के ढलते ही......................
मुन्तजिर - इन्तजार
Wednesday, May 21, 2014
Tuesday, April 22, 2014
चुनावी चौराहों .....................
चुनावी चौराहों और चौपालों पर
चैतन्य वेग का रेला है
दूर-दराज सूनसानों में भी
कैसा जमघट कैसा मेला है
वादों में लहरा के चलते हैं
कभी खुद औहदों पर इतराने वाले
आरोपों और प्रत्यारोपों का
रोचक खेल दिखाने वाले
गली-गली और बस्ती-बस्ती
शहर की सकरी गलियों
सड़क किनारे झोपड़ पट्टी में
भी दिख जाते हैं..............
कभी-कभी कहीं-कहीं
ये दिखने वाले....................
Tuesday, February 18, 2014
Wednesday, January 8, 2014
वफ़ा के नाम से डरते हैं ..
बेदर्द जमाने में ,खत-ओ-पैगाम से डरते हैं ||1
दीदार में दिये के हम, पतंगा-से जलते हैं |
रातों को आहट में, हम जुगनू-से जलते हैं ||
रजनी के आँचल में, आहें तो भरते हैं |
करवट में उड़ाएं नींद, उन यादों से डरते हैं||
मगरूर हैं अदाओं में, हमें जो इंकार करते हैं|
हरे जख्म करे हर बार, उसी मुस्कान से डरते हैं||
चुपके से आओ यार इल्तिजा तेरे नाम करते हैं|
खामोश फिज़ाओं में अब हम कोहराम से डरते हैं|
''आनन्द'' मिला दिन-रात, जिसे विसाले -नाम करते हैं|
दानिस्ता नैन किए दो चार, मगर अब अन्जाम से डरते हैं||
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